आखिर क्यों हुआ पत्रकारों में बिखराओं
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मो०ताहिर अहमद वारसी
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सहाफी(पत्रकार)ये देश का वो प्रहरी है जो देश व समाज में रह कर देश के नागरिकों की समस्याओं,प्रशासन की कमियों और शासन के बेलाम नेताओं पर पैनी निगाह रखता है।यहाँ शायद ये बताने की जरूरत नहीं है कि देश की आजादी में पत्रकारों का कितना बड़ा योगदान रहा।परंतु आजादी के बाद उन आजादी के मतवालों ने सोचा भी नहीं होगा कि जिन पत्रकारों को अंग्रेजी शासन अपने इरादे से न हिला सका उन्हे छल नीति से हमारे राजनेता अपना दास बना कर पालेंगें।आजादी के बाद भारत के लगभग सभी पत्रकार देश की सबसे बड़ी पार्टी के साथ थे परंतु जब कुछ दिन बाद बंदर बाट शुरू हुआ ।तो उन्ही देश के जियालों नें अपनी ही सरकार के खिलाफ कलम उठाई तब मौजूदा हुकमरानों का ध्यान भारतीय पत्रकारिता की ओर गया ।जल्द ही उन्हे यह एहसास हो गया कि अगर पत्रकारिता पर अपना वश नहीं किया तो देश मे बंदर बाट का भंडाफोड़ हो जाएगा और सत्ता हाथ से निकल जाएगी ।तब उस समय के बड़े कार्पोरेड घराने जिन का हिस्सा बंदर बाट मे खूब बटा था।उन को देश के बड़े अख़बार दे दिए गए।अब जो कलमकार थे उनके पास कोई आए का साधन न होने के कारण उन्हे उन्ही अख़बारों में काम करना पड़ा ।शासन के विरोध मे खबर लिखनें पर उन्हे अख़बार से निकलना पड़ता और उन के पास आय का कोई साधन न होने के कारण अपने और अपने परिवार के जीवन यापन के कारण वो खामोशी से इस साजिश का शिकार होते रहे।सरकारी तंत्र ने कभी निष्पक्ष पत्रकारिता को न प्रोत्साहन दिया न बढावा।समय बदला देश की आबादी बढी पढे लिखों की संख्या बढी ।हर आदमी जल्दी अमीर होने के ख्वाब देखने लगा ।जो जितना बड़ा सत्ता पक्ष का दलाल बना उस ने उतनी मलाई काटी।समय का चक्र चलता गया ।फिर वो समय आया की शासन की खबरों से पूजीवादियों के अख़बार रंगने लगे ।दबे , कुचलों की आवाज़े दबाई जाने लगीं।तब देश के समाज सेवी बुद्धजीवियों ने संविधान अनुसार देश के प्रत्येक नागरिक को अपना समाचार पत्र व पत्रिका प्रकाशित करने का अधिकार है की तर्ज पर स्वय आपसी चंदे की मदद से छोटे छोटे क्षेत्रीय समाचार पत्र प्रकाशित किए जिन में शासन की गलत नीतियों और पूजीवादी व्यवस्था के खिलाफ कलम उठाई।तब शासन को इन से खतरा महसूस हुआ तो पत्रकारों में आपसी मतभेद पैदा करने के लिए पूजीवादी अख़बारों के पत्रकारों को बड़ा व चंदे से चलने वाले अख़बारों के पत्रकारों को छोटा पत्रकार की खाई खोदी गई ।बड़े पत्रकारों को शासन सत्ता से तमाम सुविधाएं दिलाई गई।इसी प्रकार धीरे धीरे पूजीवादियों के अख़बारों की चमक दमक के आगे छोटे क्षेत्रीय समाचार पत्र समाप्त होते गए ।फिर आए दिन उन पर नए नियम थोपे जाते गए ताकि ये जल्द समाप्त हो जाएं जैसे समाचार पत्र के चंदे का हिसाब दीजिए ।हिसाब न देने की सूरत मे मुकदमा व जेल।फिर भी लोग अपनी आवाज़ो को शासन,प्रशासन तक पहुचानें के लिए समाचार पत्रों का प्रकाशन कराते रहें जिस मे गरीब तबके के कम पढे लिखे लोग जुड़ कर अपनी व अपने समाज की दबी आवाज़ो को क्षेत्रीय स्तर पर उठाते रहे।परंतु शासन को ये भी रास न आया तो जल्द ही मीडिया कोर्स अनिवार्य करने की तैयारी की जाने लगी ताकि कम पढे लिखे गरीब तबके के लोग पत्रकारिता से पूरी तरह दूर हो जाएं।और इन की आवाज़ो को आसानी से दबाया जा सके ।आज के समय मे समाचार पत्र चलाना लोहे के चने चबाने से कम नहीं है जिस अख़बार की कीमत १या२रूपया है उसे छापने में 4से 5रूपया लगते हैं।उस के बाद भी नियमो का अम्बार लगा कर शासन ने पत्रकारिता को लोहे के चने बना दिया जिसे चबाना तो हर कोई चाहता है पर चबाने योग्य दांत हर किसी के पास नही है ।और शासन के फरमाबरदारों को सरकारी सुख सुविधाएं दिला कर पत्रकारिता जगत जो कभी समाज सेवा हुआ करती थी उसे दो भागों मे बाट दिया गया।ताकि न तुम एक रहोगे न तुम्हारी ताकत मजबूत होगी और न तुम शासन का विरोध कर सकोगे।
सहाफियों के माथे पर कलंक लगाने की बड़ी साजिश।